सुषमा सुबह से कुछ खोई खोई थी खुश भी थी कुछ उदास भी...प्यारे बेटे राजू के स्कूल एडमिशन का दिन जो था ..पिछली रात कितनी देर राजू के पापा को मनाती रही ..हम भी संग जाएगें राजू के स्कूल...अरी तुम क्या करोगी ..अंग्रेजी स्कूल है तुम्हारे लिए काला अक्षर भैंस बराबर ..अपना चूल्हा चौका करो घर संभालो ..रात भर कान में ये शब्द तीर की तरह
प्रहार करते रहे...कभी इस करवट तो कभी उस करवट ..कितनी मन्नतों के बाद नसीब से राजू की किलकारियां घर में गूंजी थी...सुषमा ने एक एक क्षण राजू को जैसे गले से लगा कर रखा था ...दिन भर उसका ख्याल..उसके खेलने से लेकर उसके सोने तक ..रात को अपनी नींदें खराब कर उसको सुलाती ..लोरी सुनाती...
आज सब अलग सा था...राजू को नहलाते हुए मन पानी में जैसे डूब रहा हो...सब कुछ तो किया...घर बार पति राजू...राजू को जन्म दिया पाला, बड़ा किया नाना दादा बुआ कहना सब सिखाया ..ये गलत है..ये सही..सब कुछ तो ..फिर क्यों आज मैं पराई सी लग रही हूँ..आज मुझे अपने बेटे के साथ.. जो इतनी ख़ुशी का दिन है जिसको मैं महसूस करना चाहती हूँ...नन्हें राजू की उस ख़ुशी को अपनी आँखों से देखना चाहती हूँ ..क्यों मुझसे उस हक़ को छीना जा रहा है...तभी आवाज कानों में पड़ते ही सुषमा सकपका गयी..राजू की माँ ..जल्दी राजू को तैयार करो ...टाइम पर पहुँच जाऊँगा तो सार काम ठीक ठाक से हो जाएगा ...जी अभी करती हूँ..बस राजू तैयार है...सुषमा राजू को कपडे पहना बाल सवारने लगी..राजू बाहर जाने के लिए बहुत खुश था...तभी अपनी मासूम आँखों को उठा कर बोला...मम्मी तुम चलोगी न...पापा कह रहे थे आज मैं स्कूल जाऊँगा...वहां और भी बच्चे होते हैं...सुषमा से जवाब दिए न बना ..आंसू पोंछती रसोई में चली गयी..दोनों का टिफिन बनाने लगी...इतनी भी अनपढ़ नहीं हूँ मैं...बारवीं पास हूँ..आगे नहीं पढ़ पाई...घर के हालातों की वजह से...
टिफिन लेकर बाहर आई तो मन धक से रह गया. .. दोनों दरवाजे पर खड़े थे ...अरे जल्दी लाओ..तुम न जाने कौन सी दुनिया में रहती हो...चलो हम चलते हैं...राजू मुड़ मुड़ कर अपनी माँ को देखता रहा ...पर सुषमा की इतनी हिम्मत न थी कि ..वो उस दहलीज को लांघ अपने बच्चे की उगली थाम उसके साथ चल सके .....इतनी नम हो गयी आँखें कि...सब धुंधला सा दिख रहा था ....वो अपने आप को भी कहीं नहीं देख पा रही थी...राजू बाहर की दुनिया में कदम रखने जा रहा था ...रोती बिलखती सिरहाने में मुहं छुपा कर कहने लगी...कौन..हूँ..मैं..एक माँ एक पत्नी या..... एक औरत...
नारी मन की व्यथा का बहुत सुन्दर चित्रण...
ReplyDeleteMarmik ... Nari man aur samaj ke dogle vyavhar ko bakhoobi kahti hai kahani .....
ReplyDeleteमाँ का योगदान कितनी आसानी से भुला दिया जाता है।
ReplyDeleteमार्मिक !